Sunday, 18 September 2011

रस्सी-सा बल खाना भी और आँचल-सा लहराना भी

मंज़िल तक पहुँचा देता है यूँ ही कहीं मुड़ जाना भी
रहबर अपना बन जाता है रस्ता कोई अनजाना भी

आसानी से पँहुच पाओगे इंसानी फ़ितरत तक
कमरे में कमरा होता है कमरे में तह़खाना भी

दिल बच्चे की सूरत है बेशक बिठलाना पलकों पर
ज़िद जो करे बेमानी कोई तो उसको समझाना भी

क्यों हँसते हो बंजारों पे घर आँगन बस्ती वालों
किसको बांध के रख पाया है कोई ठौर ठिकाना भी

जीवन की इस राह-गुजर में दोनों रंग ज़रूरी हैं
रस्सी-सा बल खाना भी और आँचल-सा लहराना भी

इक चौराहे के जैसा है जिसको जीवन कहते हैं
राहों-सा मिल जाना भी है राहों-सा बँट जाना भी

दरिया जैसा फैले रहना है अपना अंदाज़ मगर
वक़्त पड़े आता है हमको बूँदों में ढल जाना भी

जाने कैसे सुधरेगा ये हाल तुम्हारा हस्ती जी
कुछ तो चारागर भी नये हैं कुछ है रोग पुराना भी

Saturday, 17 September 2011

बच्चों वाली आदत रखिये

हँसती गाती तबीयत रखिये
बच्चों वाली आदत रखिये

शोला, शबनम, शीशे जैसी
अपनी कोई फ़ितरत रखिये

हँसी, शरारत, बेपरवाही
इनमें अपनी रंगत रखिये

अपने दिल से भी कुछ बातें
कर लेने की फ़ुरसत रखिये  

भरे-भरे मानी की ख़ातिर
कभी कभी कोरा ख़त रखिये

काम के इंसां हो जाओगे
हम जैसों की सोहबत रखिये

Wednesday, 14 September 2011

ये कैसे हो सकता है

प्यार में उनसे करूँ शिकायत, ये कैसे हो सकता है
छोड़ दूँ मैं आदबे-मुहब्बत, ये कैसे हो सकता है

चन्द किताबें तो कहती हैं,कहती रहें,कहने से क्या
इश्क हो इंसां की ज़रूरत, ये कैसे हो सकता है

फूल महकें, भँवरें बहकें, गीत गाए कोयलिया
और बच्चे ना करें शरारत, ये कैसे हो सकता है

जन्नत का अरमान अगर है, मौत से कर ले याराना
जीते जी मिल जाए जन्नत, ये कैसे हो सकता है

कोई मुहब्बत से है ख़ाली कोई सोने-चाँदी से
हर झोली में हो हर दौलत, ये कैसे हो सकता है

अपनी लगन में,अपनी वफ़ा में कोई कमी होगी हस्ती
वरना रंग लाये चाहत, ये कैसे हो सकता है