Friday 29 July 2011

कुछ और सबक़ हमने किताबों में पढ़े थे


हम जिनके लिये शम्अ की मानिंद जले थे

वो लोग तो सूरज की तरफ़ देख रहे थे



कुछ और सबक़ हम को ज़माने ने सिखाए

कुछ और सबक़ हमने किताबों में पढ़े थे



सरहद पे जो कटते तो कोई ग़म नहीं होता

है ग़म तो ये सर घर की लड़ाई में कटे थे



जब ख़ुद से मिला मैं तो सभी कर दिये सीधे

जितने भी वरक़ मेरी किताबों के मुड़े थे



सर पे जिन्हें रखा है बड़ी शान से तुमने

वे ताज मेरे घर के खिलौनों में  पड़े थे



दिल को जो मेरे भाए थे अनमोल नगीने

वे और किसी की ही अँगूठी में जड़े थे

Wednesday 20 July 2011

फूल पत्थर में खिला देता है

फूल पत्थर में खिला देता है

यूँ भी वो अपना पता देता है



हक़ बयानी की सज़ा देता है

मेरा क़द और बढ़ा देता है



अपने रस्ते से भटक जाता हूँ

वो मुझे जब भी भुला देता है



मुझमें पा लेने का जज़्बा है अगर

क्यों ये सोचूँ कोई क्या देता है



उसने बख़्शी है बड़ाई जबसे

वो मुझे ग़म भी बड़ा देता है

Tuesday 19 July 2011

माँ के जैसा है ये दिया कुछ-कुछ

उससे मिल आए हो लगा कुछ-कुछ
आज ख़ुद से हो तुम जुदा कुछ-कुछ

दिल किसी का दुखा दिया मैंने
ज़िन्दगी मुझसे है खफ़ा कुछ-कुछ

मेरी फ़ितरत में सच रहा शामिल
अपना दुश्मन ही मैं रहा कुछ-कुछ

आग पीकर भी रौशनी देना
माँ के जैसा है ये दिया कुछ-कुछ

उलझे धागों से हमने समझा है
ज़िन्दगानी का फ़लसफ़ा कुछ-कुछ

Wednesday 13 July 2011

आँख का पानी बचा के रखते हैं

चिराग़ हो के न हो दिल जला के रखते हैं

हम आँधियों में भी तेवर बला के रखते हैं



मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में

हम अपनी आँख का पानी बचा के रखते हैं



हमें पसंद नहीं जंग में भी मक्कारी

जिसे निशाने पे रखते, बता के रखते हैं



कहीं ख़ुलूस, कहीं दोस्ती, कहीं पे वफ़ा

बड़े क़रीने से घर को सजा के रखते हैं



अना पसंद हैं हस्तीजी सच सही लेकिन

नज़र को अपनी हमेशा झुका के रखते हैं

ग़म को गीत बना कर देख

महल, अटारी, बाग़, बग़ीचा, मेला, हाट घुमा कर देख

फिर भी बच्चा ना बहले तो, लोरी एक सुना कर देख



छू हो जाती है धज सारी या कुछ बाक़ी रहता है

डिगरी, पदवी, ओहदों से तू अपना नाम हटा कर देख



चार दिनों में भर जायेगा दिल इन मेलों-खेलों से

चाह रहेगी सदा नवेली मन को रोग लगा कर देख



जंतर-मंतर जादू-टोने झाड़-फूँक, डोरे-ताबीज़

छोड़ अधूरे-आधे नुस्ख़े ग़म को गीत बना कर देख



शब के बाद सवेरे जैसा बचता ही जाऊँगा मैं

चाहे जितनी बार मुझे तू ख़ुद से जोड़ घटा कर देख



उलझन और गिरह तो हस्ती हर धागे की क़िस्मत है

आज नहीं तो कल उलझेगी जीवन-डोर बचाकर देख


Tuesday 5 July 2011

प्यार का पहला ख़त


प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त़ तो लगता है

नये परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है



जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था

लंबी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है



गाँठ अगर लग जाये तो फिर रिश्ते हों या डोरी

लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है



हमने इलाजे-ज़ख्मे-दिल तो ढूँढ़ लिया लेकिन

गहरे ज़ख्मों को भरने में वक़्त तो लगता है