Tuesday 16 August 2011

नदियों के पास कोई समन्दर नहीं गया

गुल हो समर हो शाख़ हो किस पर नहीं गया
ख़ुशबू पे लेकिन एक भी पत्थर नहीं गया

सारा सफ़र तमाम हुआ ज़हन से मगर
रस्ते की धूप-छाँव का मंज़र नहीं गया

हम भी मक़ाम छोड़ के इज़्ज़त गवाएँ क्यूँ
नदियों के पास कोई समन्दर नहीं गया

बादल समन्दरों पे बरसकर चले गए
सहरा की प्यास कोई बुझाकर नहीं गया

इक बार जिसने देख ली महबूब की गली
फिर लौट के वो शख्स़ कभी घर नहीं गया

Thursday 4 August 2011

झूठ के बाज़ार में ऐसा नज़र आता है सच

ख़ुशनुमाई देखना ना क़द किसी का देखना
बात पेड़ों की कभी आये तो साया देखना

ख़ूबियाँ पीतल में भी ले आती है कारीगरी
जौहरी की आँख से हर एक गहना देखना

झूठ के बाज़ार में ऐसा नज़र आता है सच
पत्थरों के बाद जैसे कोई शीशा देखना

ज़िन्दगानी इस तरह है आजकल तेरे बग़ैर
फ़ासले से कोई मेला जैसे तन्हा देखना

देखना आसाँ हैं दुनिया का तमाशा साहबान
है बहुत मुश्किल मगर अपना तमाशा देखना

Wednesday 3 August 2011

सबकी सुनना, अपनी करना

सबकी सुनना, अपनी करना
शहरे-वफ़ा से जब भी गुज़रना

अनगिन बूँदों में कुछ को ही
आता है फूलों पे ठहरना

बरसों याद रखें ये मौजें
दरिया से यूँ पार उतरना

फूलों का अंदाज़ सिमटना
ख़ुशबू का अंदाज़ बिखरना

गिरना भी है बहना भी है
जीवन भी है कैसा झरना

अपनी मंज़िल ध्यान में रखकर
दुनिया की राहों से गुज़रना