गुल हो समर हो शाख़ हो किस पर नहीं गया
ख़ुशबू पे लेकिन एक भी पत्थर नहीं गया
सारा सफ़र तमाम हुआ ज़हन से मगर
रस्ते की धूप-छाँव का मंज़र नहीं गया
हम भी मक़ाम छोड़ के इज़्ज़त गवाएँ क्यूँ
नदियों के पास कोई समन्दर नहीं गया
बादल समन्दरों पे बरसकर चले गए
सहरा की प्यास कोई बुझाकर नहीं गया
इक बार जिसने देख ली महबूब की गली
फिर लौट के वो शख्स़ कभी घर नहीं गया