Tuesday 16 August 2011

नदियों के पास कोई समन्दर नहीं गया

गुल हो समर हो शाख़ हो किस पर नहीं गया
ख़ुशबू पे लेकिन एक भी पत्थर नहीं गया

सारा सफ़र तमाम हुआ ज़हन से मगर
रस्ते की धूप-छाँव का मंज़र नहीं गया

हम भी मक़ाम छोड़ के इज़्ज़त गवाएँ क्यूँ
नदियों के पास कोई समन्दर नहीं गया

बादल समन्दरों पे बरसकर चले गए
सहरा की प्यास कोई बुझाकर नहीं गया

इक बार जिसने देख ली महबूब की गली
फिर लौट के वो शख्स़ कभी घर नहीं गया

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